मुसलमान होने का बोझ


हर आतंकी हमले के बाद भारत के मुसलमान नौजवानों को एनकाउंटर, फर्जी धरपकड़ और टार्चर किए जाने का डर बना रहता है । मुसलमान कब तक इस संदेह मे जियेंगे कि वे आतंकवादी हैं या आतंकवाद का समर्थन करते हैं? असुरक्षा की भावना हमारी जिन्दगी का एक हिस्सा बन चुकी है, अपना अनुभव बता रहे हैं महताब आलम… 
दिल्ली में क्रमिक बम धमाके, तुम कहाँ हो?, क्या तुम सुरक्षित हो?” दिल्ली से एक मित्र का मेरे मोबाइल पर एक संदेश मिला। 13 सितम्बर 2008 की देर शाम का समय था। यह तो भयानक है। मै ठीक हूँ, और बिहार में हूँ। उम्मीद है तुम और तुम्हारे परिवार के सभी लोग ठीक होंगे।मैंने दिल्ली के दूसरे मित्रों को सूचित करने से पहले ये उत्तर (रिप्लाई) भेजा। मैं बिहार में था और उस साल कोशी क्षेत्र में भयानक बाढ़ से हुई तबाही के दुष्परिणामों का सर्वे और एक वेबपोर्टल के लिए रिपोर्टिंग का कम कर रहा था।
दिल्ली में 13 सितम्बर 2008 को क्रमिक बम धमाकों के साथ सूरज अस्त हुआ, जिसमें 26 निर्दोष लोगों की मौत हो गई थी और उससे ही कहीं ज़यादह लोग घायल हो गए थे। 30 मिनट के दौरान हुए सभी पाँच बम धमाकों ने तबाही का मंजर पैदा कर दिया था। जब मेरे भेजे हुए सभी संदेशो का सकारात्मक उत्तर मुझे मिला तो मुझे राहत की सांस मिली। मेरे एक सीनियर सहकर्मी ए आर अगवान का अंतिम उत्तर मुझे आधी रात के बाद मिला, जो पर्यावरण-विज्ञान के पूर्व सहायक प्रोफेसर हैं और जिनके साथ मैंने देश के कई हिस्सों में मानवाधिकारकर्मियों के लिए अनेक वर्कशॉप करवाई हैं। उन्होंने मुझे संदेश भेजा कि वह सही हैं और सो रहे थे, इसलिए देर में उत्तर दे पाये।
धमाकों की खबर से आहत, लेकिन यह सोचते हुए कि अब सब बीत ही चुका हैमैंने खुद को काम में व्यस्त करने की कोशिश की । लेकिन मैं गलत साबित हुआ। दूसरे दिन दोपहर में दिल्ली के एक सिविल राइट्स ग्रुप, एसोसियेशन फाँर प्रोटेक्शन आँफ सिविल राइट्स (ए पी सी आर) के सचिव की कॉल के बाद मैं बेचैन हो गया। वह परेशान लग रहे थे और खराब नेटवर्क ने समस्या को और बड़ा दिया था। कुल मिलाकर मुझे यह समझ में आया कि दिल्ली में स्थिति खराब है, और प्रमुख रूप से दक्षिणी दिल्ली के जामिया नगर इलाके में, जहाँ मुसलमानों की बहुसंख्या रहती है। पूरे इलाके में भय का माहौल व्याप्त था। प्रत्येक धमाके के बाद की तरह पुलिस बिना सोचे मुस्लिम युवाओं की धरपकड़ कर रही थी। मुझसे जितना जल्दी हो सके दिल्ली आने के लिए कहा गया।
मिली जानकारी संतोषजनक नहीं थी, इसलिए मैंने ए आर अगवान को काल करने की कोशिश की क्योंकि वह उसी क्षेत्र के थे। लेकिन मेरे लगातार और पूरे दिन में 20 से ज़यादह कालों का जवाब न मिलने पर मुझे चिन्ता हुई। उनके लिये ऐसा करना असामान्य था। रमजान का महीना होने के कारण इफ्तार के तुरन्त बाद मैं पास के साइबर कैफे में दिल्ली का टिकट बुक करने चला गया । टिकट बुक करने से पहले मैंने अपना ईमेल चेक करने के दौरान एक मेल देखा जिससे मैं पूरी तरह हिल गया और कुछ मिनटों के लिए अवाक् रह गया। खबर थी कि ए आर अगवान को गिरफ्तार कर लिया गया था! उन्हें दिल्ली पुलिस की विशेष सेल (आतंकवाद-विरोधी दस्ते) द्वारा गिरफ्तार किया गया था।
ए आर अगवान एक प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता हैं और कई सामाजिक और मानवाधिकार आंदोलनों से जुड़े हुए हैं। उन्हें साफ छवि वाले, और सरल व्यक्ति के रूप में जाना जाता है। इसलिए उनकी गिरफ्तारी पूरे समुदाय के लिए आश्चर्य का विषय थी। जहाँ एक ओर मुसलमान समुदाय इस गिरफ़्तारी को लेकर सकते में था वहीं उनके पड़ोसियों को समझ में नहीं आ रहा था कि ये क्या हुआ और वो लोग सहमे हुए थे । लेकिन मामला सिर्फ अगवान का नहीं था, दूसरे कार्यकर्ताओं से बात करने पर पता चला कि सिर्फ अगवान ही नहीं बल्कि उसी क्षेत्र से तीन और लोगों को भी गिरफ्तार किया गया था। समुदाय के नेताओं सहित सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं की ओर से दबाव बनाने के बाद ही अगवान और दूसरे दो लोगों को देर शाम रिहा किया गया। रिहा किए गए लोगों में अदनान फ़हद नामक नौजवान भी था जो एक डी टी पी आँपरेटर है और एक छोटे प्रकाशन का व्यवसाय करता है। उन्हें सुबह 11 बजे के लगभग गिरफ्तार किया गया था और देर शाम को लगभग 7.30 बजे रिहा किया गया। इस दरमयान उन से गहन पूछताछ की गई। उनका मानना थायदि समुदाय के नेताओं और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं नें दिल्ली पुलिस पर दबाव न बनाया होता तो उनकी अवैध हिरासत और लम्बी रही होती और शायद अभी जेल में होते ।
17 सितम्बर को दिल्ली लौटते ही मैं अगवान से मिलने गया। वह अभी सदमे से उबर रहे थेउनका कहना था वो उनकी जिन्दगी के सबसे खराब और दुखदायी क्षण थे । उन्हे बिल्कुल अन्दाज़ नहीं था कि उन्हे गिरफ्तार क्यों किया गया। "उन्होंने मुझसे धमाके वाले दिन मेरे ठिकाने और उस दिन शाम को मेरी गतिविधियों के बारे में पूँछा। मैंने बताया कि मैं घर पर था और दो गैर-मुस्लिम मित्रों से मुलाकात कर रहा था। वे एक एन जी ओ शुरू करने के लिए चर्चा करने आये थे। इसके बाद उन्होंने मुझसे स्टूडेंट स्लामिक मूवमेंट आँफ इण्डिया (सिमी) और उसके लोगों के बारे में सवाल किये। उन्होंने मुझसे अपने क्षेत्र से कुछ सिमी के लोगों के नाम देने का दबाव डाला, और मैंने उन्हें बताया कि मैं कुछ नहीं जानता। लेकिन वो दवाब डालते ही रहे 
पूछताछ करने वालों ने अबुल बशर के बारे में बार- बार पूछा, जिसे एक महीने पहले ही आज़मगढ़ से गिरफ्तार किया गया था और जिस पर कतिथ रूप से अहमदाबाद के क्रमिक धमाकों का सरगना होने का आरोप था। "मैंने उन्हें बताया कि मैं अबुल बशर के बारे में इससे अधिक और कुछ नहीं जानता जितना कि मीडिया में पढ़ा है, " अगवान ने उन्हें बताया I इस उत्तर से संतुष्ट न होकर पूछताछ करने बालों नें उनपर यह आरोप लगाया कि बशर के पास उनका नम्बर था और वह उनके घर पर रुका था। अगवान ने दृढ़तापूर्वक आरोप को खारिज़ किया। "लेकिन उन्हें मुझपे विश्वास नहीं हुआ और वो मुझ पर दवाब डाल रहे थे कि उनकी बात को मान लूं जिसमे थोड़ी भी हकीक़त नहीं थी। वह मुझसे एक न किये गए 'अपराध' को स्वीकार करवाने की कोशिश कर रहे थे जिससे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं था। ऐसा लग रहा था कि कोई कानून है ही नहीं और पुलिस अपने आप में कानून बन चुकी है।
अगवान ने मुझे बताया, "जब उन्हें लगा कि मुझे हिरासत में रखना मुश्किल होगा क्योंकि समाज के कई हिस्सों से मुझे छोड़नें का दबाव बन रहा था, तो उन्होंने मुझे घर पर छोड़ने के लिए कहा । लेकिन मैंने उनके साथ जाने से इनकार कर दिया। मैंने उनसे कहा कि मुझे डर है कि वह किसी और जगह लेजाकर मुझे प्रताड़ित करेंगे ताकि मैं उनके द्वारा लगाये गये अभियोगों को 'स्वीकार' कर लूँ, जैसा कि पूरे देश के सैकड़ों मुसलमानों के साथ किया जा चुका है। मैंने उनसे अपने परिवार से किसी को बुलाकर मुझे लेने आने लिये बोला।" अवान ने जिस डर का अनुभव किया था उसे सुनकर मुझे हैदराबाद में 'आतंकवाद से लड़ने के नाम पर अल्पसंख्यकों (पढ़ें मुसलमानों) के खिलाफ अत्याचार' पर हुए एक जन सुनवाई मे सुनी गईं कहानियाँ याद आ गईं।
वहां हमने दिल दहला देने वाली मनमानी गिरफ्तारियों और प्रताड़ना की कहानियाँ सुनी थी जो कि तथाकथित 'आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध' के पीड़ितों, जेल में बंद अभियुक्तों के परिवारों के सदस्यों और सामाजिक कार्यकर्ताओं नें सुनाई थीं। सब सामान्य शिकायते यह थीं कि उन्हें मुक्कों से, लातों से बुरी तरह पीटा गया। उन्होंने बताया था कि उन्हें अपमानित करने के लिए और तोड़ने के लिए पूछताछ करने वाले उन्हें घण्टों खड़ा रखते थे और उल्टा लटका देते थे। उन्हें हिरासत में कोई सुविधा नहीं दी गई थी और उनसे शौचालय का पानी पीने के लिए दबाव डाला जाता था। कुछ को बिजली के झटके दिये जाते थे और पुलिस वालों द्वारा कही जाने वाली बातों को दोहराने के लिए बोला जाता था। एक ने ब्योरा दिया: "पूछताछ करने वाले मेरे साथ लगातार गालियों और अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे। और यह सब आधी रात के लगभग 1 बजे से सुबह तक प्रताड़ित करने का काम चलता रहता था ।" ज्यादातर लोगों से पहला सवाल पूछा गया था: "तुम लोग राष्ट्र-विरोधी क्यों बन गये हो? तुम सभी खूनी पाकिस्तानी हो।"
प्रताड़ना सिर्फ उन्हीं तक सीमित नहीं थी जिन्हे गिरफ्तार किया गया था, पुलिस उनसे 'अपराध' स्वीकार करवाने के सभी हथकंडो का स्तेमाल कर रही थी। और इसका एक तरीका था परिवार के लोगों को भी प्रताड़ित करना । अतुर रहमानजिनकी उम्र 60 साल से ज़यादह थी अपने परिवार के साथ मुंबई में रहते थे, और जुलाई 2006 के मुंबई धमाकों के सम्बन्ध में उनके एक इन्जीनियर बेटे को भी अभियुक्त बनाया गया हैउन्होंने हमें बताया था, "मेरे घर पर रात में छापा मारा गया और मुझे किसी अनजान जगह पर ले जाया गया। सात दिनों तक मुझे गैरकानूनी तरीके से हिरासत में रखने के बाद, 27 जुलाई 2006 को मुझे औपचारिक रूप से गिरफ्तार दिखाया गया, और मेरे खिलाफ एफ आई आर दर्ज की गई। मैं, मेरी पत्नी, मेरी बेटियों और मेरी बहू से मेरे गिरफ्तार बेटों के सामने परेड करवाई गई और पुलिस अधिकारियों द्वारा लगातार अभद्र-व्यवहार किया गया। मुझे और मेरे बेटों को एक दूसरे के सामने पीटा गया। ए टी एस वाले परिवार की महिलाओं को हर दिन बुलाते थे और मेरे गिरफ्तार बेटों के सामने उनसे बुर्का उतारने को कहते थे। उनके अपमान के साथ मेरे बेटों को महिलाओं के सामने अपमानित किया जाता था। एक अधिकारी ने मुझे पीटा और धमकी दी कि मेरे परवार की महिलायें बाहर हैं और यदि मैंने अपने बेटों और पुलिस के सामने अपने कपड़े न उतारे तो उन्हें नंगा कर दिया जायेगा । उन्होंने दूसरे गिरफ्तार अभियुक्तों को बुलाया और मैं उनके सामने कपड़े उतारकर नंगा हो गया.... "
19 सितम्बर 2008 को दिल्ली के जामिया नगर इलाके के बटला हाउस में हुई कथित 'मुठभेड़', जिसके फर्जी होने के बहुत सारे सबूत हैं, मुस्लिम नौजवानों की गिरफ्तारियों में बढ़ोत्तरी हुई। उसी साल 23 सितम्बर को हम लोग पुलिस के बढ़ रहे दमन और समुदाय विशेष के लोगों खास तौर पर युवाओं को निशाना बनाये जाने और उन्हें प्रताड़ित किये जाने निति से निपटने के लिए, वकीलों, सामाजिक-मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, शिक्षाशास्त्रियों और सामुदायिक नेताओं कि एक मीटिंग चल रही थी। अभी मीटिंग ख़तम भी नहीं हुई थी कि हमें खबर मिली कि जामिया नगर से एक 17 साल के लड़के साकिब को उठा लिया गया है। क्यूंकि खबर यह थी कि कुछ 'अनजान' व्यक्तियों ने लड़के को उठाया था इसलिए हमने क्षेत्रीय पुलिस के पास शिकायत दर्ज कराने का फैसला किया।
जब हम थाने पहुंचे तो पहले-पहल पुलिस वालों ने टाल-मटोल करना शुरू किया । वह हमसे मिलने तक के लिए अनिच्छुक थे लेकिन बाद में वरिष्ठ वकीलों, जामिया के शिक्षकों और पत्रकारों के दबाव के चलते हमारी शिकायत दर्ज कर ली गई। लेकिन हमें थोड़ी ही देर बाद सूचना दी गई कि दिल्ली पुलिस की विशिष्ट सेल ने सकीब को 'पूछताछके लिये उठाया है । पर मामला इतना असां नहीं थाबल्कि मामला यूं था कि वो सकीब के घर उसके बड़े भाई को उठाने के लिए गए थे लेकिन उसके न मिलने की वजह से (सौभाग्यवश उस वक़्त वो हमारे साथ उस मीटिंग में था) उसे नंगे पांव टीशर्ट और पजामा पहने हुए ले गए। जिस गाड़ी पर बिठा कर ले गए थे उसमे नंबर प्लेट नहीं था और सारे के सारे लोग सादा कपड़ो में थे । जब उच्चतम न्यायालय के वकील कोलिन गोनाज़ाल्वेस और लड़के के रिश्तेदार विशिष्ट सेल के पास गये तो पुलिसवालों का साफ-साफ बल्कि निर्लाजता पूर्वक कहना था : "उसके भाई को सौप दो और इसे लो जाओ!"
अफ़सोस यह है कि ये सिर्फ एक साकिव की कहानी नहीं है। पिछले दस वर्षों में लोगों को लगभग हर दिन अंधाधुंध उठाया जाता है और परेशान किया जाता है, कुछ को बुरी तरह से प्रताड़ित किया जाता है। ज्यादातर शिकार ज्यादा परेशानी से बचने के लिये चुप रहते हैं। वे इससे भी डरते हैं कि अगर लोग यह जान जायेंगे कि उनके साथ ऐसा कुछ हुआ है तो, 'संदिग्ध व्यक्ति' को कोई भी काम नहीं देगा या घर किराये पर नहीं देगा और यहाँ तक कि शादी में भी परेशानी होगी। उनका शक ग़लत नहीं है कईयों के साथ ऐसा हो चुका है, कई भीख मांगने पर मजबूर हैं ।
दिल्ली में बम धमाकों और बटला हाउस 'मुठभेड़' के तीन साल बाद भी जामिया नगर और दुसरे मुस्लिम इलाकों के निवासी डर मे जी रहे हैं। एक ऐसी स्थिति बना दी गई है कि हर मुसलमान को, आतंकवादी नहीं तो कम से कम संदिग्ध या आतंकी समर्थक के रूप में देखा जाता है। एक बदनाम एस एम एस भी है कि: "हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता, लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान है।" जो पहली बार जुलाई 2006 के मुंबई धमाके के बाद लोगों ने एक दुसरे को भेजना शुरू किया था, आज भी प्रचारित किया जा रहा है। जनता के एक बड़े हिस्से में एक अवधारणा बन गयी है या कम से कम बनाने कि कोशिश की जा रही है कि मुसलमान संभावित आतंकवादी होते हैं, चाहे वह इस्लाम में विश्वास करने वाला हो, अनीश्वरवादी हो या नास्तिक हो।
शाहीना के केस को ही ले लीजिये, जो एक पत्रकार हैं और घोषित अनीश्वरवादी भी हैं। उन्होंने इसी वर्ष , एक पुरस्कार लेते समय, घोषणा की थी: "देखिये मैं मुसलमान पृष्ठभूमि से आती हूँ, लेकिन मैं आतंकवादी नहीं हूँ।" उसे इस स्पष्टीकरण की ज़रुरत इसलिए पड़ी क्यूंकि अगर आप अल्पसंख्यक समुदाय से आते हैं तो आपको स्वतः एक खाके में ढाल दिया जायेगा। शाहीना को इसका व्यक्तिगत अनुभव है इसलिए वह भली-भांति जानती है, उस पर अब्दुल नासिर मदानी केस में गवाहों को 'डराने-धमकाने' का झूठा आरोप लगाया गया है । उसका एकमात्र 'अपराध' यह है कि उसने केरल के पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता नासिर मदानी के केस की छान-बीन की थी, जो कि बंगलौर के बदनाम बिस्फोटों के अभियुक्त थे ! तहलका पत्रिका ( जिसकी वो वरिष्ट संवाददाता थी) में छपे एक रिपोर्ट के रूप में, जो तथ्यों पर आधारित था, और यह सवाल पूछा था कि: "यह व्यक्ति अभी तक जेल में क्यों है?" याद रहे की मदानी 1997 के कोयंबटूर विस्फोट के केस में विचाराधीन कैदी के रूप में 10 साल पहले ही बिता चुके हैं और 2007 मे वो रिहा कर दिये गये थे।
मैं भी व्यक्तिगत रूप से यह पक्षपात झेल चुका हूँ। लेकिन शुक्र कि बात है कि दूसरों की तरह उतना कुछ नहीं झेलना पड़ा जितना आम तौर पर झेलना पड़ता हैघटना जुलाई 2008 की है हम झारखण्ड में जेलों और कैदीओं की स्थिति जानने के किये एक फेक्ट-फाइन्डिंग के लिए गिरिडीह जेल में दौरे पर थे कि मुझे और मेरे दो मित्रों को माओवादी होने का आरोप लगा कर पांच घंटों तक अवैध हिरासत में रखा गया। बाद में पी यू सी एल के झारखण्ड के महासचिव शशी भूषण पाठक, जो कि पूरे दौरे के आयोजक थे और जिन्होंने छुड़ाने के लिए अधिकारियों से बात की थी, ने मुझे बताया कि गिरिडीह के एस पी मुरारी लाल मीना (जो अब झारखण्ड पुलिस का इंटेलिजेंस चीफ है) ने उनसे कहा था: "यह आदमी (यानि मैं) क्यूंकि बिहार के सीमांत इलाके सुपौल का रहने वाला है जो नेपाल की सीमा पर है और जामिया मिलिया स्लामिया, नई दिल्ली, में पढ़ा हुआ है, इसीलिए वह पक्का आतंकवादी है!" उसने हमे उसी जेल की सलाखों के पीछे कैद करने की धमकी दी थी, कम से कम एक साल तक जमानत की किसी उम्मीद के बिना।
इसी साल जुलाई में हुए मुंबई बिस्फोट से कुछ ही दिनों पहले, मिड-डे ग्रुप के एक मुसलमान फोटो-पत्रकार, साईद समीर आबिदी को यातायात जंक्शन और एक हवाई जहाज के सामान्य फोटो खींचने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया था। उसे धमकाया गया, अभद्र व्यवहार किया गया और उसके मुस्लिम नाम के कारण उसे आतंकवादी कहा गया। मिड-डे की एक रिपोर्ट के अनुसार, पुलिस स्टेशन पर उसके केस के जांच अधिकारी सब-स्पेक्टर अशोक पार्थी ने जब घटना के बारे मे पूछा और उसने सब बता दिया, और कहा मैंने कुछ ग़लत नहीं किया है। इस पर अधिकारी गुस्से में आ गया और उसने कहा, : "ज्यादा बातें मत करो। चुप रहो और जो हम कह रहे हैं उसे सुनो। तुम्हारा नाम साईद है, तुम एक आतंकवादी और एक पकिस्तानी हो सकते हो।"
दुर्भाग्य से यह पक्षपात सिर्फ पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों तक ही सीमित नहीं है। जन साधारण भी सोचते हैं कि हर आतंकी हमले के लिए मुसलमान जिम्मेदार हैं। और यह कोई नई बात नहीं है। वास्तव में हर दिन यह स्थिति और बिगड़ती जा रही है। वर्ष 2001 की बात है, ट्रेन से पटना जाते समय मेरा ध्यान एक बूड़े आदमी की तरफ गया जो टोपी पहने बैठे एक कम उम्र के मुसलमान नौजवान से अंग्रेजी की कोई पत्रिका बार-बार माँग रहा था जिसे वह नौजवान अत्यंत एकाग्रता के साथ पढ़ रहा था। इस नौजवान ने शिष्टतापूर्वक बूड़े व्यक्ति से उसे पूरा लेख पढ़ लेने तक इन्तजार करने के लिए कहा। बूड़ा नौजवान के ऐसा करने पर उस नौजवान को गालीयाँ देने लगा और उसे और दूसरे मुसलमानो पर आतंकवादी होने का आरोप लगाने लगाने लगा जो कि उसके मुताबिक अमेरिका को तबाह करने के बाद अब भारत की सुरक्षा को नष्ट कर रहे हैं। वह कहता रहा, सभी मुसलमान पाकिस्तानी हैं, और उन्हें वहीं चले जाना चाहिए। उस समय मेरी उम्र 15 साल थी और मैं एक मुसलमान की तरह पहचाने जाने से बच रहा था, इसलिए मैंने कोइ टिप्पणी करना उचित नहीं समझा। आगे मामला तब और थम गया जब उस नौजवान ने बूड़े आदमी को वह पत्रिका दे दी (जिसे उस बूड़े व्यक्ति ने बेशरमी से यह कहकर वापस कर दिया कि उसे अंग्रेजी पढ़ना नही आता)
एक किशोर के रूप में, मैंने इस बात पर बहुत ज्यादा ध्यान न देने की कोशिश कीलेकिन पिछले तीन वर्षों में, मैंने अक्सर अपने आप से यह प्रश्न पूछा है: क्या मैं सुरक्षित हूँ? ईमानदारी से कहूँ तो, मुझे इस पर शक है| और मेरी सबसे बड़ी चिंता यह है कि साधारण मुसलमान युवा, जो अगवान या मेरे जैसे लोगों की तरह एक बड़े नेटवर्क से नहीं जुड़े हैं | आज की हकीक़त यह है कि किसी भी विस्फोट के बाद हर मुसलमान (खास तौर पर नौजवान, जिसमे लड़कियां भी शामिल हैं क्यूंकि वो इशरत का हाल देख चुकी हैं ) अपने को असुरक्षित महसूस करने लगता हैचाहे ये बात कितनी ही कड़वी हो, आज भारत में मुसलमान होने का मतलब, मुठभेड़ों के डर में रहना है, लगातार आतंकवादी होने का डर, ये पता होना कि कभी भी अवैध तरीके से पकड़ा जा सकता है, कठोर अत्याचार किया जा सकता है, यहाँ तक कि जान से भी मारा जा सकता है| कब तक भारत के मुसलमानों को मुसलमान होने का बोझ सहन करना होगा? असुरक्षा की यह भावना हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन गई है| मेरे पास अभी भी इस सवाल का कोई जवाब नहीं है, 'क्या यह कभी खत्म नहीं होगा?' जो कि एक बार मेरी शिक्षिका ने पूछा था, जब मैंने उन्हें आजमगढ़ के मोहम्मद अरशद नाम के एक विद्यार्थी के अवैध रूप से पकडे़ जाने के बारे में बताया था. में आशा करता हूँ कि उनके सवाल का सकारात्मक जवाब मैं जल्द ही दे पाऊँगा ।

अनुवाद : राजकुमार
(नागरिक अधिकार एक्टिविस्ट और स्वतंत्र पत्रकार, महताब आलम मानवाधिकार आंदोलनों से जुड़े हैं। उनसे पर activist.journalist @gmail.com संपर्क किया जा सकता है ।)

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